मैं अब ख़ुद में
ठिठक कर रुकती नहीं
कभी देखती नहीं ...
और कभी
अनायास पलट कर
देख भी लूं कहीं,
तो किसी अनजान राही सा
सरसरी नज़र फेर
खुद से बचती बचाती
निकल जाती हूं,
सुदूर कहीं ...
दूर उन रिसते और
खदबदाते घावों से भरे
अंधेरों की ओर
जहां सभ्यताएं
पनपती ही नहीं
कभी भी नहीं!!
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