16 May 2025

ठिठक कर रुकती नहीं

 मैं अब ख़ुद में 

ठिठक कर रुकती नहीं

 कभी 

देखती नहीं 

कभी

अनायास पलट कर

 देख भी लूं कभी 

तो किसी अनजान राही सा

सरसरी नज़र फेर 

खुद से बचती बचाती 

निकल जाती हूं 

सुदूर कहीं 

रिसते और खदबदाते 

घावों  से भरे

अंधेरों की ओर

जहां सभ्यताएं 

पनपती नहीं कभी 

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