सुनो न ज़िंदगी..
चलो न, अपने घर को चलते है ..
ज़ख्म खाई रातों के घावों पे
सुबह का मलहम सा रखते है !
तीखी धूप सी
जो जल उठी हो खुद यूं भीतर से,
आओ न ठंडे सायों को
तुम्हारा बदन सा करते है .
कहीं सीधी नहीं
बड़ी ही उल्टी है दुनिया ये
चलो न पांव को सर
और
सर को पांव करते है
चलो न ज़िंदगी फिर से
शहरों को गांव करते है
चलो न ज़िंदगी
आज अपने घर को चलते है
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