सुई में धागा पिरोती
रिश्तों को रफू करती स्त्री..
घरोंदों से
अविश्वास के मकड़जाल को
साफ करती स्त्री ...
बिस्तर की सिलवटों को
बदन पे
मन पे लगी खरोंचों
सिलवटों को
इस्तरी करती स्त्री ....
बर्तन भांडी
कभी कभी
फ़ाइलों और दफ्तरों के
बीच फैली स्त्री
अपने आपको समेटती स्त्री ...
इन्ही चेहरों में
कहीं खुद को तलाशती
खुद को तराशती स्त्री ...
नहीं....
यकीनन नही देखा होगा तुमने,
इन चेहरों में
ख़ुद को खुद में
तलाशती
खुद को पुकारती स्त्री को
न कभी न देखा होगा
कभी न जाना होगा
है न?

1 comment:
वाह! बहुत सुंदर और सशक्त रचना।
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