एक आकाश गंगा से तुम ,
एक निहारिका सी मैं !
अगनित तारों और सूरज से
भरे तुम,
और iकितने ही नजारे
समाए हुई मैं !
एक काल से
जल रहे हो तुम,
एक समय से
धधकती हुई सी मैं !
दूर सुदूर उस ब्रह्मांड में
बसे हुए तुम,
और
कुछ प्रकाश दूरी पे
ठिठकी हुई सी मैं !
सदियों से अपनी ओर मुझे
खींचते हुए तुम,
अनादि से तुम्हे
सम्मोहित करती हुई मैं !
सदियों की इस
रस्साकशी में,
न जीते हो तुम,
और न हारी हूं मैं !
तो आओ,
इस "मैं" को मिटा कर
और
इस "तुम" को भुला कर
बस राख राख
धुआं धुआं हो जाए !
तितली के दो पंख सम
आज से ,अभी से
"तितली 🦋 निहारिका"
हम हो जाए !
और फिर जन्म दे
अगनित तारों को,
सौर्य मंडलों को,
और
अनेकों ऊर्जा पिंडों सी
तुम्हारी और मेरी
अनंत संततियो को !!
1 comment:
बहुत ही अच्छी रचना है...वाह बहुत गहन विचारों को समेटे हुए।
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