सुनो ....
क्या कहकर
पुकारूं तुम्हे ?
चित्रकार ?
कि उकेरती है
तुम्हारी उंगलियां
कितने ही
प्रणय के चित्र
मेरी देह पे ...
या कहूं
जुलाहा तुम्हे मैं?
कि
तुम्हारे स्पर्श मात्र से
बुनने लगती है
कितनी ही कहानियां
मेरी देह भी
तुम कहो तो कहूं
एक आखेटक तुम्हे ...
जिसकी उंगलियों की
आहट मात्र से
उड़ने लगती है
मेरी देह में
रोमांच की
कितनी ही तितलियां !!
या कहूं
माहिगीर तुम्हे ?
कि
मेरी देह की
नदी में
तैरती है
तुम्हारे देह की
गंध वाली मछलियां ....
सुनो ...
ओ चित्रकार...
ओ जुलाहे ...
आखेटक मेरे यौवन के
या माहीगीर मेरे !!!
आओ लिखे हमतुम
एक प्रणय गाथा ...
संसार की
सबसे पुरातन लिपि में ...
देह और
उंगलियों की लिपि में
इक अशेष गाथा ...
जो युगों युगों से
कहती रहीं है पीढ़ियां
और कहती रहेंगी
आने वाली पीढ़ियां भी ...
आदि से
अनंत काल तक !!
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