29 April 2019

*****मैं स्त्री *****


हर रोज़ अपने ही
सफ़र पे निकलती हूँ मैं
ख़ुद अपने ही भीतर ..
अपने नाखूनों ..
हड्डियों ...
माँस और मज्जा के भीतर,
देह पे चढ़ी त्वचा से,
माँसपेशियों के भीतर तक !

मैंने पाया है
मैं एक नहीं, अनेक हूँ ..
मेरे कई चेहरे है
कई देह है ...
जो परिस्थिति और
लोगों के अनुरूप
बनाई है मैंने!

मेरी
कितनी ही देहे ..
कितने ही चेहरे ..
कितने ही दफे
मर गए है या ..
मारे गए है
कितनी ही वजहों से ...

अपनी
कितनी ही लाशें ...
तैरती है मेरे ही भीतर
और सडाँध होने लगी है
बदबू मारती है
मुझमें कहीं ...
कई दफे सोच और
कितने मरतबा
मेरे कर्मों में !

ये लाशें कई दफे
आसुओं संग
बह जाती है
और कभी लफ़्ज़
बन ज़बान से
या क़लम पे
उतर काग़ज़ में
दफ़्न हो जाती है ..

अक्सर
असमंजस की
स्थिति हो जाती है ..
क्या करूँ
इन लाशों का ?
ये लाशें जो
नतीजा है किसी
सोच का ...
हरकत का ..
लफ़्ज़ का ...

क्या
दाह संस्कार करूँ ...
या दफ़्न कर दूँ
या खुले में फेंक दूँ
ताकि दुनिया
चील कौवों की तरह
बोटी बोटी नोच खाए
मेरे भीतर की इन लाशों को ...

हर रोज़
इन बदबू मारती
अपनी ही लाशों का
कभी दाह संस्कार कर
कभी काग़ज़ों में दफ़्न कर
अपनी देह से नेह के
इस दुर्गम सफ़र से
हर बार ही
लौट आती हूँ मैं ..

पुनः
अपने कई चेहरे
कई देह बनाने में
जुट जाती हूँ
फिर से
लोगों, परिस्तिथियों की
भेंट चढ़ने के लिए ...
फिर से
मर के जीने के लिए

#मैं_ज़िंदगी

1 comment:

Unknown said...

Bahut khoob....Sandhya ji