मन की
परतों में ...
तहों में ...
दबा रखी है मैंने
उधेड़बुन ....सारी !!
मैं ..
हर रात ...
अपने एकांत की
खोह में..
उधेड़ती हूँ गिरहें ...
कितनी ही सारी !
और फिर
बुनती हूँ
एक जामा,
उन्ही उलझनों का
गिरहों का
और
ताक पर रख देती हूँ उन्हें
किसी बेबसी की अमावस को !!
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