बिलकुल वैसे जैसे
सूरज का मादक स्पर्श
और हवा का पुचकारना
बूँद बूँद रिसता पानी
मदहोश कर देता है
उस गुलाब के पौधे को
उसके तने
और पत्तियों को
और फिर ये
प्रेम की ललक, तड़प
छटपटाहट
अँगड़ाइयाँ लेती है
नर्म फाहों सी शामों को
ग़र्म अंधेरों में
अहसासों की ज़मीं में
और सुदूर आकाश तले
और फिर
प्रस्फुटित होता है
काँटों के साथ
काँटों के बाद ...
वो अस्पर्शय ....
अदृशय प्रेम ....
देह हो ....
गुलाब हो जाता है !!
एक गुलाब - एक गहरा लाल गुलाब !!
देखो ...
ये असीमित प्रेम
अगोचर प्रेम
ये तड़प ये छटपटाहट
परिवर्तित करती है
अनंत को
उस असीमित को
उस अगोचर को ...
एक ठोस .. सीमित ...
गोचर प्रेम
अर्थात - गुलाब में !
गुलाब जो
प्रतीक है
प्रेम की
असीमित ... अगोचर
अगन का तड़प का !!
सुनो ....
प्रीतम मेरे ...
आओ जिए ...
उस अनंत....असीमित
... अगोचर प्रेम को !!
आओ ...प्रियतम ....
आओ हम भी गुलाब हो जाए !!
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