23 December 2018

प्रेम


बिलकुल वैसे जैसे 
सूरज का मादक स्पर्श  
और हवा का पुचकारना 
बूँद बूँद रिसता पानी
मदहोश कर देता है
 उस गुलाब के पौधे को 
उसके तने 
और पत्तियों को 
और फिर ये 
प्रेम की ललक, तड़प 
छटपटाहट
अँगड़ाइयाँ लेती है 
नर्म फाहों सी शामों को 
ग़र्म अंधेरों में 
अहसासों की ज़मीं में 
और सुदूर आकाश तले 
और फिर 
प्रस्फुटित होता है 
काँटों के साथ 
काँटों के बाद ...
वो अस्पर्शय ....
अदृशय प्रेम ....
देह हो ....
गुलाब हो जाता है !!
एक गुलाब - एक गहरा लाल गुलाब !!

देखो ...
ये असीमित प्रेम 
अगोचर प्रेम 
ये तड़प ये छटपटाहट
परिवर्तित करती है 
अनंत को 
उस असीमित को 
उस अगोचर को  ...
एक ठोस .. सीमित ...
गोचर प्रेम 
अर्थात - गुलाब में !

गुलाब जो 
प्रतीक है 
प्रेम की 
असीमित ... अगोचर
अगन का तड़प का !!

सुनो ....
प्रीतम मेरे ...
आओ जिए ...
उस अनंत....असीमित 
... अगोचर प्रेम को !!

आओ ...प्रियतम ....
आओ  हम भी गुलाब हो जाए !!




No comments: