वक़्त ने तोड़ी ऐसे हस्ती मेरी
पत्थर की थी, अब रेत हो गई
खुशियों की एक धरती थी मेरी
अब बंजर सूखा सा खेत हो गई
कि बोझ उठाना था इस घर का
कोमल घास सी थी, मैं बेंत हो गई
जब तक हाथ चले, सब खुश थे
अब बूढी हूँ तो एक भूखा पेट हो गई
**************************************
देख उसे हुआ पत्थर सा
मैं भी कुछ पत्थर सी हो गई।
सोच ये कि दोनों टकराते है जब
कई चिंगारियां आग हो गई।
No comments:
Post a Comment