2 November 2015

रब्बा, मैं क्या करूँ ......




वो .... सुनहरा रूप, 
रूप की ......छनती वो धूप 
धूप के,..... छोटे से वो साये
मेरी,..... ज़िंदगी में आए 
मुझको..... दिन भर सताए 
रातें ..... नींदें जगाए 
रब्बा, मैं क्या करूँ ......


बादल की सीढ़ी से..... वो 
चाँद को उतारे .... वो 
गोल गोल ...... माथे पे, 
बिंदी सा सँवारे .....वो 
उसके झुल्फो के साये 
काँधे पे जो छाये। . 
मेरे होश यूँ उड़ाए 
रब्बा, मैं क्या करूँ ......


No comments: