29 June 2015

ये तन्हाइयाँ



उस रोज़ जब हवाएं
शाखों में फंस गई थी।
क्या जाने क्यों उस दरख्त में 
एक हरारत सी हो गई थी


उंगली में यूँ लपेटे 
बादल को ये हवाएं
आज जाने क्यों ये 
शोख चंचल  सी हो रही थी। 


बूंदे फिसल के फलक से
यूँ क्यों दहक रही थी ?
सावन में आज जैसे
एक आग लग गयी थी !!


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