10 January 2015

पागल घटायें (composed in 2001)

मुझे  तुम बताओ
ए पानी की बूँदो
कहाँ से चली थी
कहाँ आ गिरी हो

कुछ तो कहो तुम
ए पागल घटाओ
ये किसकी लगन मे
हुई बावरी हो?

ये कैसी ललक है?
ये कैसी जलन है?
कि रह रह के
जल उठता
ये तेरा बदन है?

ये कैसी सदा है?
ये कैसी तपन है?
तेरी हुंकारो से
गूँज उठता गगन है?

ये किसकी बिरह मे
तू जल रही है?
अपने आँसुओ से
तू नदिया भर रही है!

खिलखिलाकर हसीं थी
वो सुन बात मेरी
बोली-
मेरे प्यार को
तू ना समझेगी पागल!

मैने पूछा-
ये बादलो का आँचल
छलक क्यूँ पड़ा है?
आसमानो का सीना
क्यूंकर फट पड़ा है?

बोली थी . घटा-
मेरे प्यार को तू
समझ ना सकेगी
समझने मे शायद
सदिया कम पड़ेगी

क्या देखा है तूने?
धरा का बिलखता ये योवन?
क्या सुना है तूने?
आसमानो का क्रंदान?

उम्र गुज़री है धरा की
इंतेज़ार करते
रोज़ जाती है मिलने
गगन से क्षितिज पे
दूर है कितने दोनो
इतने पास रहकर?

हर पल हर रोज़
कितने मास रहकर
सोचती है
एक रोज़ आएगा
गया था ये कहकर!

शरद मे ठिठूरकर
कितनी राह तककर
जल उठती है पगली
बिरह की पीड़ सहकर.

बदन मे फिर
पड़ने लगती है दरारे
सूखने लगते है
पेड़ नदिया किनारे

और फिर
आती हूँ मैं
 झूम कर  घूमड़ कर
नाचती खेलती
बादलो से उमड़ कर

बरस जाती हूँ
आसमा का प्यार बनकर
चली जाती हूँ
मन मे आशा जगाकर
उसके योवन मे
कितने जीवन सजाकर.

फिर आउंगी मैं
आसमाँ का संदेश लेकर
मेरा इंतेज़ार करना
यहीं पर तू रहकर.

(15/6/2001)



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